क) ऊँची क्यारीयुक्त नाली तकनीक से जमीन को तैयार करना - सर्वप्रथम जमीन की गहरी जुताई करके, प्रति एकड़ 10 टन की दर से गोबर खाद या कम्पोस्ट खाद मिट्टी में अच्छी तरह मिला लेते हैं। इसके साथ 1 के 3 क्विंटल चारकोल (लकड़ी का कोयला) प्रति एकड़ के दर से खेत में मिला देते हैं। इससे मिट्टी में लाभकारी जीवाणुओं की संख्या, जल धारण क्षमता और उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है। इस जमीन को तैयार करते समय हरी खाद, अजोला, नील-हरित शैवाल इत्यादि का व्यवहार किया जाता है। बाद में ग्लाईरिसिडिया, सुबबूल, टेपरोसिया, अगस्त (बकपुल) इत्यादि की पत्तियों को भी हरी खाद के रूप में व्यवहार किया जा सकता हैं। जमीन की ढाल के अनुसार क्यारी तैयार करना आवशयक है। इन क्यारियों को 1 मीटर चौड़ा एवं 20 सेंटीमीटर ऊँचा तैयार किया जाता हैं। क्यारी की लंबाई आवश्यकता अनुसार कम या ज्यादा की जा सकती है। साधारणत: एक क्यारी की लंबाई 8 से 10 मी. होती है। दो क्यारियों के बीच में 30 से.मी. चौड़ी तथा 20 से.मी. गहरी नाली का निर्माण किया जाता है, इसके पश्चात क्यारियों में जितना हो सके कम से कम कूड़ाई क्रिया करते हैं।
ख) तरल जैव मिश्रण द्वारा मृदा उपचार - मिट्टी में नियमित रूप से तरल जैव मिश्रण का सिंचाई के साथ जमीन शोधन हेतु व्यवहार करना चाहिए। शस्यगव्य के मातृद्रव के साथ सही मात्रा में लकड़ी की राख को मिश्रित करके अम्लीय जमीन का शोधन करते हैं और मातृद्रव के साथ नींबू या कोई भी सस्ता अम्लीय फल का टुकड़ा मिश्रित करके क्षारीय जमीन को भिंगोकर शोधन कर सकते हैं। शस्यगव्य मात्र से भी जमीन का शोधन किया जा सकता है जिससे अम्लीय भूमि को उदासीन बनाया जा सके तथा वहाँ पर अच्छी खेती की जा सके। जमीन शोधन करने के बाद 10 के 15 दिनों तक जमीन को ढक कर रखने से उसकी उर्वराशक्ति में वृद्धि होती है।
ग) हल्के छायादार बहुवर्षीय पौध रोपण- जमीन के चारो ओर मेड़ के किनारे हल्के छायादार पौधों जैसे - ग्लाईरिसिडिया, अगस्त आदि का रोपण करते हैं। ये पौधे फसल की सूर्य के उच्चताप से रक्षा करते हैं तथा इनकी पत्तियाँ जमीन में गिरकर जमीन की उर्वराशक्ति में वृद्धि करती हैं। ये पत्तियां पशु के लिए पौष्टिक आहार के रूप में भी प्रयोग होती है। ग्लाईरिसिडिया ऐसा पेड़ है, जो जमीन में चूहों से होने वाली क्षति को भी रोकता है। ‘ग्लाइरि’ शब्द का अर्थ है चूहा, ‘सिडिया’ शब्द का अर्थ मारण अस्त्र, अर्थात ग्लाईरिसिडिया का अर्थ हुआ चूँहा मारने का अस्त्र। इसलिए जमीन के चारो ओर इन वृक्षों को बोने से चूहों का आक्रमण कम होता है।
घ) पौधों द्वारा खेत की सजीव घेराबन्दी करना - फसल को गाय, बकरी इत्यादि पशुओं से रक्षा करने हेतु खेत के चारो ओर सजीव घेरे का व्यवहार किया जाता है। साधारणत: झाड़ीदार, काँटेयुक्त वनस्पति तथा उन वनस्पति समूहों को, जिन्हें पशु नहीं खाते हैं, जैसे थेथर, पुटूस, सिंदवार, वन तुलसी, बासक इत्यादि लगाकर सजीव घेरा तैयार किया जाता हैं। इन सभी वनस्पतियों जिन्हे पशु नहीं खाते हैं, जिससे किसान कीटनाशक भी तैयार कर सकते हैं। इस तरह कुछ कांटेयुक्त पौधों जैसे करौंदा इत्यादि पौधों द्वारा भी खेत की घेराबन्दी की जा सकती है। जिअल, मुनगा आदि पौधों को सजीव खूँटा के रूप में लगाया जा सकता है और इनके फलों को किसान बाजार में बेचकर मुनाफा भी कमा सकते हैं। इन पौधों की साल में एक दो बार छटाई करनी होती है। छांटे गए पौधों की पत्तियाँ जैव खाद, वनस्पति फफूंद और कीटनाशक के रूप में प्रयोग की जा सकती है। इसके अलावा ये विभिन्न लाभकारी और अलाभकारी कीटों के बीच में संतुलन भी बनाये रखते हैं।
ङ) बीज अंकुरण जाँच - बीज को मुख्य खेत या नर्सरी में लगाने से पूर्व इसके अंकुरण की जाँच कर लेनी चाहिए। बीजों के आकार के अनुसार अंकुरण जाँच करने की दो घरेलू विधियाँ हैं। छोटे बीजों जैसे टमाटर, धान, गेहूँ इत्यादि के बीजों को बालू में गिनकर डाल देते हैं तथा इसमें उचित नमी बनाकर छाया में 7 से 10 दिन तक रखते हैं। अंकुरण आने बाद दो पत्तीवाले बीजों की संख्या गिन लेते हैं। जिससे बीजों के अंकुरण क्षमता का पता चल जाता है। बड़े बीज जैसे लौकी, चना, मटर इत्यादि का अंकुरण जाँच करने के लिए एक प्लेट में र्इंट के 1 के 2 घन से.मी. टुकड़ों में बीजों को गिनकर डाल लेते हैं तथा इसमें 7-10 दिन तक उचित नमी बनाये रखते हैं। अंकुरण आने के फलस्वरूप दो पत्ती वाले बीजों की संख्या गिन लेते हैं जिससे बीज की अंकुरण क्षमता का पता चल जाता है। मुख्य खेत में उसी समूह के बीजों की बुआई करते हैं जो कि अंकुरण जाँच में संतोषजनक पाये जाते हैं। कुछ प्रमुख फसलों का न्यूनतम मानक अंकुरण प्रतिशत निम्नवत है :-
| फसल | न्यूनतम अंकुरण मान |
| धान, जौ, तीसी, सरगुजा, कुसुम, तिल,कुलथी | 80 % |
| गेंहूँ, चना, सरसों, राई | 85 % |
| मक्का | 90 % |
| मोटे अनाज, उरद, मूँग, बोदी, सेम, खेसरी, मसूर, अरहर, मटर, फ्रेंचबिन | 75 % |
| मूँगफली, बैगन, मूली, टमाटर, बंदगोभी,प्याज | 70 % |
| भिंडी, फूलगोभी | 65 % |
| पालक,गाजर,मिर्च, लत्तरवाली सब्जियाँ | 60 % |
च) संजीवनी द्वारा बीज एवं पौध उपचार
अ) बीज उपचार - सर्वप्रथम जमीन और मृदा तथा मौसम के अनुसार फसलों का चयन करना चाहिए और स्वस्थ एवं रोग रहित बीजों का संग्रह करना चाहिए। बीज उपचार कृषि कार्य का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसलिए किसान को ‘बीज संजीवनी’ द्वारा बीजों का उपचार करना चाहिए, जो कि बीज को अच्छा अंकुरण प्रदान करने के साथ-साथ कीट व व्याधियों के प्रकोप से भी सुरक्षा प्रदान कराता है।
ब) पौध उपचार - ऐसी फसल जिसकी नर्सरी तैयार की जाती है, जैसे- धान, टमाटर, बैगन, मिर्चा इत्यादि के पौधों को मुख्य खेत में लगाने से पहले बीज संजीवनी द्वारा पौधो की जड़ो को 20 से 30 मिनट तक उपचारित करना चाहिए, जो पौधों को स्वस्थ एवं विभिन्न रोग-कीट व्याधियों से सुरक्षा प्रदान करती है।
छ) ट्राइकोडरमा वीरिडी का वृद्धिकरण - यह एक मित्र फफूंद है जो हानिकारक फफूंद को नष्ट करता है और जैव फफूंदनाशी के रूप में कार्य करता है। बीज बोने व पौध रोपने से 15-20 दिन पहले ट्राइकोडरमा वीरिडी की मात्रा बढ़ाने की प्रकिया प्रारंभ करें। ट्राइकोडरमा वीरिडी की 10 ग्राम मात्रा को प्रति किलो गोबर की खाद या कम्पोस्ट के साथ छांव में अच्छी तरह से मिलायें। अब इस मिश्रण को पुआल या पत्तियों से ढक दें। मिश्रण करने के 7 दिन बाद, कुदाली से दो बार मिलायें तथा अच्छी तरह से ढक कर रख दें। जब पौधा लगाना हो तो उस समय प्रति पौधा 1 से 2 मुट्ठी ट्राइकोडरमा वीरिडी मिश्रित खाद को तने के पास दिया जाता है। इस मिश्रित खाद प्रति एकड़ 50 किलों की दर से दलहन व सोलेनेसी फसलों (टमाटर, बैगन, मिर्चा) में उपयोग से प्राथमिक अवस्था में पौधों की फफूंद वाले जड़ सड़न तथा मुरझा बिमारी से सुरक्षा की जा सकती है।
ज) पलवार (मल्चींग)- मिट्टी को सूखा पुआल, पत्ता, अनुपयोगी जूट के बोरे, भूसी, घास-फूस या खरपतवार के पत्तों आदि से ढक कर रखने की क्रिया को पलवार (मल्चींग) कहते हैं।
इसके निम्न लिखित लाभ है -
मिट्टी की नमी (आर्दता) बनी रहती है।
खरपतवार का प्रकोप कम होता है।
यह मिट्टी को तापमान घटने या बढ़ने के कुप्रभावों से बचाता है, जिससे जलवायु समतुल्य कृषि को बढ़ावा मिलता है।
मल्चींग से जमीन का पानी वाष्प बनकर नहीं उड़ पाता है, बार-बार सिंचाई भी नहीं करना पड़ती है।
इसके नीचे बहुत सारे लाभकारी कीट व फफूंद तथा जीवाणु आश्रय लेते है, जिससे फसल में हानिकारक कीटपतंगों की रोकथाम हो जाती है तथा फसल में जीवाणुओं से रक्षा प्राप्त होती है। जिससे स्वास्थ्य व गठन तथा जलधारण क्षमता अच्छी हो जाती है।
कुछ समय के बाद मल्चींग का अवशेष मिट्टी में खाद के रूप में मिलकर वहां की उर्वरता शक्ति को बढ़ाता है।
झ) समेकित जैविक पोषक तत्व प्रबंधन- मिट्टी में जैविक खाद, (कम्पोस्ट, वेंâचुआ खाद),जीवाणु खाद तथा तरल जैविक खाद का ही व्यवहार करना चाहिए। हरी खाद, हरी पत्तियाँ, अजोला आदि का व्यवहार करना चाहिए। खेत के चारो ओर मेड़ों पर हल्के छायादार पौधों (सु-बबूल, ग्लाईरिसिडिया,अगस्त आदि) को लगायें। इससे लगातार खेत को हरी खाद मिलती रहती है। खेत के चारो तरफ एक अनुकूल जैव वातावरण का निर्माण करना चाहिए जहाँ केंचुवा तथा अन्य सूक्ष्म जीव अपनी संख्या बढ़ा सकें।
ञ) पानी का उचित उपयोग तथा जल संरक्षण - भूमि के अनुसार पानी के संरक्षण व जल संग्रह के माध्यम से हर बूँद पानी का सही उपयोग करना चाहिए ताकि इससे सिंचाई की संख्या में कमी आ सके तथा पानी का संरक्षण हो सके।
ट) समेकित विधि से खरपतवार का नियंत्रण - फसलों के खरपतवार से बचाने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जाते हैं।
मल्चिंग तकनीकी का प्रयोग।
फसल चक्र के द्वारा खरपतवार का नियंत्रण।
फसलों के बीज से खरपतवार के बीजों को अलग करके उपयोग।
अच्छी सड़ी हुई गोबर खाद का व्यवहार।
ऊँची क्यारीयुक्त नाली के माध्यम से सिंचाई द्वारा कृषि कार्य ।
खरपतवार के बीज बनने से पहले उन्हें जड़ सहित उखाड़ कर गड्ढे में दबा देना या मल्चिंग के रूप में उपयोग करना।
खेत में पलेवा कर उगे हुए खरपतवार को नष्ट करना ।